इस चकाचौध भरी दुनिया में एक चीज है जो भारत को स्पेशल बनाती हैं। वर्तमान में हो या भूतकाल में भारत हमेशा अध्यात्म का केंद्र रहा है। आध्यात्मिकता इसके रोम रोम में बसी हुई है। वही वेस्टर्न देश की बात करें जैसे अमेरिका यूरोपीय देश यहां सारी जगह पर विकास तो बहुत हुआ है। उनके विकास का पैमाना भी अलग है। आर्थिक मुद्रा धन-पूंजी ही उनके विकास का आधार है। लेकिन भारत में हमेशा से ऐसे नहीं रहा है। भारत में आज भी बहुत सारे लोग हैं जो धन को विकास का पैमाना नहीं। अपितु सुख को विकास का पैमाना मानते हैं। ऐसे धन का क्या महत्व है जिसमें शारीरिक सुख नहीं है। रिश्तो में सुख नहीं है। भाग दौड़ भरी जिंदगी में एक पल भी चैन से बैठने का सुकून नहीं है। भारत में वहीं किसान का काम खत्म हो जाता है तो वह भी सुकून से बैठकर शांति का आनंद लेता है। यह भारत की परंपरा रही है। कारण इसका सिर्फ एक है। वह है संतोष। अगर हम प्रकृति के साथ तालमेल नहीं बिठाते हैं और अंधाधुंध पैसे कमाने के पीछे भाग रहे हैं तो इससे हमारे सुख शांति कभी भी नहीं आ सकती है। बावजूद इसके हमें दुख ही दुख मिल सकता है। कारण सिर्फ एक है भाग दौड़ भरी जिंदगी इन सबसे छुटकारा पाने के लिए बहुत सारे आध्यात्मिक स्तर पर काम करना पड़ेगा। मैं जिस अध्यात्म की बात कर रहा हूं, वह भारत के अलावा विश्व में बहुत कम देशों में विद्यमान है। पूरा विश्व दौड़े चला जा रहा है। भागता चला जा रहा है और उसकी मंजिल क्या है। अधिक से अधिक धन कमाना धन तो वो कमा लेता है लेकिन तब तक उसकी आयु छीर्ण हो जाती है और वह इस दुनिया से विदा ले जाता है। अपने साथ एक भी धन नहीं लेकर जाता फिर भी धन के पीछे भाग रहा है। इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि धन की जरूरत नहीं है। धन नहीं कमाना चाहिए। धन कमाना है लेकिन इतना जीतने में आपका पेट भर सके। आपके बच्चों को अच्छी शिक्षा मिल सके। इतना ज्यादा धन किस काम का है कि लोगों का शोषण करके कमाया जा सके। लोग धन के पीछे इतना भाग रहे हैं कि अपने रिश्तों को भूल जाते हैं। एक बेटा अपने पिता को भूल जाता है। यही है धन का प्रभाव है कि वह धन में इतना खो जाता है कि अपनी मां को भूल जाता है तो ऐसे धन को संजोकर रखने से क्या फायदा अर्थात आशय यह है कि हमारे विकास की प्राथमिकता धन के बजाय शांति सुख होना चाहिए और आत्म तत्व का बोध होना चाहिए जो जरूरी भी।
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